_न अपना प्रत्याशी जीता और न ही बची पार्टी की साख_* *_गफलत में रही सैनी समाज की सियासत_* *_वैश्य समाज ने मौका नहीं गंवाया और दो दो प्रत्याशी होने के बावजूद अपना राजनीतिक वनवास समाप्त किया_

रुड़की । अब भले ही सैनी समाज के नेता इधर-उधर की बातें कर अपनी नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हो। पर वास्तविकता यह है कि न तो वह अपना प्रत्याशी जीता पाए और ना ही अपनी पार्टी की साख बचा पाए। हरिद्वार जनपद की सियासत में भाजपा सैनी समाज की पार्टी मानी जाती है और सैनी समाज भाजपा का सबसे ठोस परंपरागत वोट कहा जाता है। इसीलिए सैनी समाज की चुनावी रणनीति को लेकर खूब चचार्एं हो रही है। लोग कह रहे हैं कि इस बार के चुनाव में सैनी समाज की सियासत पूरी तरह गफलत में रही। कह यह भी रहे हैं कि या तो सैनी समाज अपने निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष सैनी को जिता लेते या फिर अपनी भाजपा पार्टी की साख बचा लेते। लेकिन सैनी समाज ने तो अपना प्रत्याशी जीता पाए और न ही भाजपा की साख बचा पाए।। यानी कि चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष सैनी जो सैनी समाज का प्रत्याशी माने जा रहे थे। उन्हें समाज का सारा वोट नहीं मिल पाया। वही जो सैनी समाज की भाजपा पार्टी मानी जाती है उसके प्रत्याशी को भी सैनी समाज का वोट बहुत कम मिल सका।। कहने का मतलब यह है कि इन दोनों जगह के अलावा तीसरी जगह सैनी समाज का वोट गया।  सैनी समाज के वोटों के इतने बड़े बिखराव के कारण ही कहा जा रहा है कि इस चुनाव में सैनी समाज की सियासत गफलत में रही। यदि सैनी समाज के सियासतकार थोड़ा भी संजीदगी दिखाते तो नगर निगम चुनाव में इस यह समाज निर्णायक साबित होता। जैसे कि वैश्य समाज सैनी समाज से कम वोट होने के बावजूद भी इस चुनाव में निर्णायक ही नहीं विजेता साबित रहा है। बता दें कि वैश्य समाज के दो दो प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे। एक निर्दलीय और दूसरे भाजपा से। जिसमें  निर्दलीय चुनाव जीता और  दूसरा भाजपा प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहा।  एक समाज के दो दो प्रत्याशी लड़ने के बाद भी वह चुनावी मुकाबले में रहे। जबकि सैनी समाज का एक प्रत्याशी चुनाव लड़ा और वह भी चुनावी मुकाबले से बाहर रह गया। इसीलिए सैनी समाज की चुनावी रणनीति और राजनीतिक जागरूकता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। क्योंकि इस समाज का एक ही पार्षद चुना गया है। जबकि वैश्य समाज के पार्षद भी सैनी समाज से अधिक चुने गए हैं। यदि दोनों समाज के वोटों की संख्या बात करें तो सैनी समाज का वोट वैश्य समाज से काफी अधिक है।  राजनीतिक पृष्ठभूमि की बात करें तो हो सैनी समाज की रुड़की में राजनीतिक पृष्ठभूमि वैश्य समाज की पृष्ठभूमि से बहुत ही अधिक पुरानी है।  राजनीतिक जानकारों को भी हैरानी इस बात को लेकर हो रही है कि सैनी समाज न तो बहुत सारी सीटों पर पार्षद प्रत्याशी लड़ा सका और न ही राजनीतिक दलों से पार्षद के टिकट प्राप्त कर सका। इसी का नतीजा है कि सभी समाज के पार्षदों की संख्या बढ़ी है लेकिन सैनी समाज के पार्षदों की नहीं। यहां तक कि कश्यप समाज के भी दो पार्षद इस बार चुने गए हैं गुर्जर समाज के पार्षदों की संख्या तो काफी अधिक पहुंच गई है। राजनीतिक जानकार बता रहे हैं कि इस बार वैश्य  और सैनी समाज के लिए यह चुनाव निर्णायक था । क्योंकि वैश्य समाज पिछले दो दशक से नगर निगम की सियासत से बाहर बना हुआ था। जबकि सैनी समाज नगर निगम ही नहीं बल्कि विधानसभा की सियासत से भी बाहर चल रहा है। इसलिए दोनों समाज के लिए नगर निगम चुनाव सियासत में आने का अवसर था। पर इसमें वैश्य समाज सफल हो गया ।लेकिन सैनी समाज नाकाम रह गया। ऐसा नहीं है कि सैनी समाज के निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष सैनी ने चुनाव लड़ने में कहीं कोई कमी थोड़ी हो उन्होंने बहुत ही दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। इसी तरह से वैश्य समाज के गौरव गोयल ने पूरे दमखम के साथ ताल ठोके रखी। दोनों के चुनाव में फर्क मात्र यह रहा कि वैश्य समाज ने अपना राजनीतिक वनवास समाप्त करने के लिए गौरव गोयल का डटकर साथ दिया जबकि सुभाष सैनी का उनके समाज ने आधे मन से साथ दिया। इसीलिए इस चुनाव में सैनी समाज की सियासत को गफलत में होना बताया जा रहा है।